बहुत दिनो के बाद कोई नाटक देखा। थियेटर के दिन याद आ गए। एक समय था जब रोज़ शाम कालिदास रंगालय, पटना में नाटकों का रिहर्सल करता था। नाट्य महोत्सवों और नाट्य प्रस्तुतियों में दिन रात कैसे गुजर जाते थे, पता हीं नहीं चलता था। बात सन 1996-98 की है जब मै बिहार नाट्यकला प्रशिक्षणालय, बिहार आर्ट थियेटर, कालिदास रंगालय में नाटक का विद्यार्थी हुआ करता था। तब मैंने भोजपुरी के कई आधुनिक नाटकों को रंचमंच से जोड़ा ....सुरेश कांटक लिखित हाथी के दांत, सरग-नरक, भाई के धन, नरेंद्र रस्तोगी मसरक लिखित मास्टर गनेसी राम .... सूर्यदेव पाठक पराग लिखित जंजीर , आचार्य पाण्डेय कपिल लिखित फूलसूंघी (नाट्य रूपांतर - मनोज भावुक ), मनोज भावुक लिखित कलाकार और महेंद्र प्रसाद सिंह लिखित बिरजू के बियाह की कई प्रस्तुतियां हुईं। भोजपुरी नाटकों को लेकर आगे बढ़ना मेरा एक सपना था। नाटको पर मैंने शोध का काम भी किया और '' भोजपुरी नाटकों की दुनिया'' नाम से आजादी के पहले और आजादी के बाद के नाटकों पर आलेख लिखा जिसका प्रकाशन भोजपुरी अकादमी पत्रिका, भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका और विभोर में हुआ। बाद में रोज़ी - रोटी के चक्कर में इंजीनियरिंग क्षेत्र में जाने और विदेश प्रवास की वजह से यह क्रम भंग हो गया .... पर भोजपुरी नाटकों के प्रति मोह भंग नहीं हुआ।
कल महेंद्र प्रसाद सिंह लिखित- निर्देशित भोजपुरी नाटक ''लुटकी बाबा के रामलीला'' देखा। भोजपुरी में इतनी मौलिक प्रस्तुति दुर्लभ है। मंच और नेपथ्य दोनों की रामलीला देखी। क्या खूब लेखक की परिकल्पना है। तमाम तरह की विसंगति और दुखो से बाहर निकलकर अपने आप को किसी किरदार में फिट करना कितना कठिन है। स्वत: और अनायास हास्य पैदा होता है और जो भी सन्देश है वह हास्य के भीतर से अपने आप फूटता है। नाटककार ने कुछ भी थोपा नहीं है। कलाकारों का चयन भी सटीक है। सभी अपनी भूमिका में फिट हैं और सबने अपना बेस्ट दिया है। अंत में लुटकी बाबा बना लेखक -निर्देशक जब बड़े हीं भोलेपन के साथ यह सवालिया निशान छोड़ जाता है कि रावण अभी मरल नइखे तो दिल्ली अपने गिरेबान में झांकने लगती है।
एल टी जी ऑडिटोरियम, मण्डी हाउस, दिल्ली में आयोजित इस नाटक को देखने के बाद मुझे सचमुच अपने थियेटर के दिनों की याद आने लगी। उन्हीं दिनों नाटककार महेंद्र प्रसाद सिंह से लेखकीय परिचय हुआ, फिर घरेलू ..फिर आत्मिक। अफ्रिका और इंग्लैड प्रवास के दौरान भी हम दोनों जुड़े रहे। विभोर में लिखता रहा। ....पर आज इनका पूरा नाटक पहली बार देखा।
दिल्ली में भोजपुरी नाट्य महोत्सव करना एक ऐतिहासिक उपलब्धि है और इसके लिए रंगश्री की पूरी टीम को बधाई।
बाकी के 4 नाटक नहीं देख पाया ..इसका अफसोस। मेरे मित्र प्रवीण सिंह (प्रोड्यूसर, अंजन टीवी) भी मुझे उलाहना दे रहे हैं कि आपने पहले क्यों नहीं बताया। हम पाँचों नाटक देखते। ऐसा अद्भुत आयोजन देखने को मिलता कहाँ है .
और हाँ ....भोजपुरी नाटकों का जितना मेरा अध्ययन है, जितना मुझे ज्ञान है, उसके आधार पर यह कह सकता हूँ कि '' समकालीन भोजपुरी नाटक में श्री महेंद्र प्रसाद सिंह एक ऐसा नाम हैं जिनकी कदकाठी, भोजपुरी ही नहीं, हिन्दी के किसी बड़े नाटककार के समानान्तर देखी जा सकती है. इनके नाटकों में नाटक का परम्परागत कथ्य और आधुनिकता से लैस समकालीन एवं समसामयिक बोध विस्तार सूक्ष्मता से सुगुम्फित मिलते हैं. इसलिये मेरा मानना है कि ये प्रयोगधर्मी सृजनशील नाटककार आधुनिक भोजपुरी नाटक के प्रथम पुरुष हैं, जिनकी रंगमंच और भोजपुरी नाटकों के प्रति प्रतिबद्धता और जिनका क्रमश: विकास रंगश्री की तमाम प्रस्तुतियों में देखा-परखा जा सकता है. भोजपुरी नाटक के इस योद्धा को मेरा प्रणाम! ''
Photos clicked by - Devkant Pandey (छाया - देवकांत पाण्डेय )